Thursday 22 February 2018

मैडम महबूबा ! कश्मीर पर राजनीति बंद कीजिए

मैडम महबूबा ! कश्मीर पर राजनीति बंद कीजिए



                     
                     प्रभुनाथ शुक्ल




राजनीति क्यों और किसके लिए होनी चाहिए। उसका उद्देश्य क्या होना चाहिए । राजनीति में नीति के साथ उसका धर्म और समावेशी सामाजिक विकास के साथ राष्ट्रीयहित शामिल होना चाहिए। लेकिन आज़ की राजनीति वैचारिक अकाल से जूझ रही है ।  उसकी सार्वभौमिकता सिकुड़ गई है । दृष्टिकोण सामरिक होने के बजाय दल, जाति , समूह और क्षेत्रवाद की धुरी पर केंद्रित हो गया है।  इसकी मूल वजह वोट बैंक की राजनीति और दीर्घकालिक सत्ता की चाहत है । जिसकी वजह से यह अपने मूल सिध्दान्तों से भटक गई है । अलगाववादी ताक़तों की वजह से कश्मीर जल रहा है । पाक प्रयोजित आतंक की फसल घाटी में लहलहा रही है । सीमांत गाँवों की स्थिति बेहद बुरी है , लोग पलायन कर रहे हैं । हमारे जवान शहीद हो रहे हैं । बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं । जबकि सरकार और विपक्षी दल राजनीति से बाज नहीँ आ रहे। बाप - बेटे यानी उमर और अब्दुल्ला की भाषा जलते कश्मीर में घी का काम कर रही है । वह कह रहे है की पाकिस्तान से गोली चल रही है तो भारत भी चला रहा है । अब्दुल्ला चाहते हैं की भारत संत बना रहे और पाकिस्तान के आतंकी सेना के जवानों और निर्दोष लोगों को भूनते रहे। वह बातचीत को अंतिम विकल्प मानते हैं । लेकिन यह प्रयोग बाप - बेटे ने अपनी सरकार में क्यों नहीँ अपनाया। आज़ उन्हें बातचीत की याद आ रही है । भाजपा , पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस कश्मीर पर राजनीति कर रही है । जिसकी वजह है घाटी सुलग रही है । क्योंकि दोनों सत्ता में बने रहना चाहते हैं । इस लिए कश्मीर में चल रही राष्ट्र विरोधी नीतियों को समय- समय पर हवा दी जाती है।

राज्य सरकार के फैसलों में भी वोट बैंक की बू आती है । इस तरह के फैसले राजनीति की घटिया सोच को
प्रदर्शित करते हैं । महबूबा सरकार ने सेना पर पत्थरबाजी करने वाले  लोगों पर लदे मुक़दमें हटाने का फैसला किया है । कश्मीर के हालात ठीक नहीं हैं। अभी तक वहाँ पंचायत चुनाव तक के हालात नहीं बन रहे हैं । लोकसभा की खाली अनंतनाग सीट पर भी उपचुनाव नहीं कराए जा रहे हैं । महबूबा की बुलाई गई सर्व दलिय बैठक में भी चुनाव कराने की आम राय नहीं बन पाई। विपक्षी दलों ने साफ तौर पर  कह दिया की राज्य में चुनाव कराने के हालात ठीक नहीं हैं। अस्पतालों पर  हमला बोल आतंकी अपने साथियों को छुड़ाने में कामयाब हों रहे हैं । राज्य सरकार के सिविल पुलिस के जवान भी आतंकियों का निशाना बन रहे हैं ।

अहम सवाल है कि राज्य में हालात इतने बुरे हैं फ़िर सेना पर पत्थरबाजी करने वालों पर हमदर्दी क्यों दिखाई जा रही है । राष्ट्रद्रोह और युध्द की साजिश रचने वालों के प्रति नरमी क्यों ? महबूबा कश्मीर और शेष भारत को अलग चश्मे से देखने की भूल क्यों कर रही हैं । संगीन जुर्म में भी धारा - 370 की आजादी का प्रयोग क्यों करना चाहती हैं । सेना के मनोबल को तोड़ने की साजिश क्यों । राज्य सरकार के इस फैसले से सहयोगी भाजपा चुप क्यों है ? कश्मीरी पंडितों पर घड़ियाली आंसू बहाने वाली भाजपा और हिन्दुत्वादी संगठन इस फैसले पर मौन हैं । लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने हैं। जबकि बंग्लादेशी रोहिन्ग्या देश में खुलेआम शरण लिए हैं । अभी तक मोदी सरकार रोहिन्ग्या पर कोई नीति नहीँ बना पाई है । यह कितनी विडम्बना है कि  मुजाहिर बने  कश्मीरी पंडितों को हम उनका घर नहीं दिला पा रहे जबकि  राष्ट्रद्रोह के आरोपियों के खिलाफ मुक़दमें हटाने की तैयारी कर रहे हैं । कश्मीरी पंडितों के लिए हमदर्दी के एक लफ्ज भी नहीं निकले ऐसा क्यों । यह राजनीति नहीं तो और क्या । जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से सबसे अधिक जो प्रभावित हुए हैं, वे कश्मीरी पंडित है। अपने ही देश में विस्थापितों का जीवन व्यतीत करने को मजबूर पंडित सिर छुपाने के लिए देश भर में विस्थापित शिविरों में रह रहे हैं। अफसोस इस बात का है कि उनकी परेशानियों को न तो राज्य सरकार ने कभी गंभीरता से लिया और न ही केंद्र सरकार इस पर खुली नीति के साथ विचार किया।

महबूबा सरकार ने 2008 से 2017 के बीच पत्थरबाजी के 1745 मामलों में 9,730 युवाओं पर दर्ज केस वापस लेने का फैसला किया है । सरकार ने मामले वापस लेने के लिए कमेटी का गठन किया था। पिछले दो वर्षो के दौरान पत्थरबाजी की मामूली घटनाओं में शामिल होने वाले चार हजार युवाओं को माफी देने की भी महबूबा सरकार ने सिफारिश की है। कश्मीर में 2016 - 2017 में 3773 मामले दर्ज किए गए। जिसमें 11,290 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 233 लोग अभी तक लापता हैं । 2016 में पत्थरबाजी के 2904 मामले दर्ज किए गए और 8570 लोगों को गिरफ्तार किया गया। जबकि 2017 में 869 मामले दर्ज किए गए और 2720 लोगों को गिरफ्तार किया। 

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